सारिका पंकज
विजयदशमी है ,पूरे नवरात्री पर सोशल मिडीया पर पढती रही कोई देवी दुर्गा को गाली दे रहा था कोई स्त्री का महिमामंडन करते हुए आज की स्त्री से तुलना , मैं जब भी पढती एक विचार मन में आता रहा कि हर बात में स्त्रीवाद का टांग अडाना कहाँ तक उचित है ? कमजोर चिल्लाते हैं ,ऐसा बचपन में माँ ने सिखाया था तो मैं आज तक उस बात को साबित करती आई कि मैं कमजोर नहीं ,मगर जानती हूँ कि माँ ने अगर ये सीखाया होता कि असभ्य चिल्लाते हैं तो ज्यादा better होता, खैर । आज बली का रीवाज है, देश ,समाज और परिवार की रक्षा के नाम पर , वैसे जानवरों की हत्या तो धर्म के नाम पर तो जमुनी संस्कृति भी करती है ,तब किसी को जानवर की करूण पुकार नहीं सुनाई देती ,मगर विजयदशमी पर सब के सब वेजीटेरीयन हो जाते हैं ,वेजीटेरीयन से ध्यान आया विषय है नारी , जो किसी लिहाज से आज के दौर में शाकाहारी नहीं । अभी अभी पढा कहीं कि औरतों का बलि पर दिया गया मांस खाना मना है , तो इसमें गलत क्या है, धर्म के मुताबिक भी सही और नारीवाद के एजेंडा के हिसाब से भी करेक्ट , क्योंकि जो खुद बलि है वो दूसरे बलि को कैसे खा सकेगी , दुर्गा अवतार थीं देवताओं की इसमें ये न सोचो कि देवताओं की अवतार क्यूं बताया जा रहा है इसमें सोचने जैसा कुछ नहीं बल्कि ग्रव की बात है कि ,बुराई पर विजय के लिए पुरूषों को स्त्री की जरूरूत पडी हर बात में नेगेटिवीटी ढुंढना फिर उस पर नारीवाद की दुहाई देना , शुक्र मनाओ कि हिंदु मान्यताओं पर बात कर रहे हैं वरना अब तक फतवा जारी हो गया होता , क्या कर रहे हैं हम अपने अस्मिता को त्योहार के उत्साह को चिक चिक कर के बेवजह की कुंठा में बरबाद कर रहे हैं। इंडिगो कि साडी या शिफान में ,मेकअप हो या सिंपल काजल ,बडी बिंदी ,, है तो आकर्षण के लिए ही ,पर मानेंगी नहीं , सही भी है । हर गलत बात पर खुद को जोड लेना और प्रताडित हो रही महिलाओं की आवाज बन कर हाई फाई जगहों पर सेमिनार , मिटिंग अटेंड करने वाली तितलियों को क्या मालूम कि दुर्गा किसे कहते हैं या प्रताडित का एक्चुअल अर्थ क्या है ,उन्हें बस नारी परतंत्रता के खिलाफ आवाज उठानी है , मैं तो कहती हूँ जरूर उठाओ ,मगर उठाने से पहले देख तो लो कि गीरा कहाँ कहाँ है , ये मुद्दा । धर्म में नाक घुसाती ये महिला मंडली दुर्गा पर विचार रखती हैं कि दुर्गा देवताओं का अवतार क्यूं थीं लो भई तो क्या अब पिता के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लगाओगी क्या , हद्द है । सोच लो कि बायलौजिकली लौजिकल हो कि नहीं , वरना मर्द तो वैसे भी सारा काम धाम छोड दें तुम्हें सुनने को ,न न देख कर सुनने को। हाँ क्योंकि कोई कन्फ्युजन नहीं वो सुनते तो आज भी सुरीली आवाज को ही हैं भले देखने में उन्हें बोल्ड पसंद हो , बोल्ड आवाज उन्हें इरीटेट करती है । जब कि सिंगल हो कर भी लुभाना उन्हें ही है तो दोहरी बातें क्यों ,ये मान लेना कि हम आकर्षण , खुबसूरती , और ध्यान का केन्द्र हैं ,गर्व की बात होनी चाहिए न कि बहिष्कार का । प्रताडितों की आवाज उन्हें खुद ऊँचा करने देना होगा , जिनकी आवाज औलरेडि ऊँची है वो अपना गला खराब करने की जगह कलम की स्याही न सूखे उस फोकस करें ,क्योंकि उस से बडी आवाज अब तक दूसरी नहीं । औरत मांस खाए कि न खाए इस पर विवाद , उफ्फ लगता है गोविंद निहलाणी की अस्सी दशक की बेरौनक चेहरों से भरी फिल्म देख ली हो ,और भी गम हैं जमाने में , आजादी आजादी के सिवा । कुंठा से बाहर निकल जो सहज है उसे स्वीकार कर , उत्सव का वक्त है , देश की बहुत सारी समस्याएँ हैं जिन्हें प्रबुद्ध व सक्षम लोगों की आस है , क्यों हम बेकार और यूजलेस मैटर्रस पर वक्त दे रहे हैं । सिंगल हों या डबल दोनों जिम्मेवारी है , हम ही खाना क्यूं बनाएँ , हम घर भी और बाहर क्यूँ देखें , अरे भई क्योंकि हम ज्यादा काबिल हैं , सिंपल । सिंगल हैं तो ज्यादा जिम्मेवार हैं क्योंकि हमारा चरित्र चित्रण आसान है , बिना परदे के घर जैसा । पुरूषों का सहारा बन सकने की क्षमता है , तो इसमें गर्व करें कि जो दुनिया के सामने मजबूत है , वो हमारे लिए एक संवेदनशील प्रेमी , हम प्रताडित हों तो महिला आयोग है ,मदद को मगर वो जब प्रताडित हो तो कहाँ जाए ? वैसे पुरूषों का एक बडा वर्ग है जो नारीवाद का झंडा बुलंद करता है ,मुझे उन पर बडा संदेह है भई , क्या वो सही में हमारी आवाज बुलंद करने को साथ हैं या हमारे सामिप्य का बहाना मात्र , खैर इसमे भी एक बात खटकती है मुझे कि हमने खुद को कमजोर क्यूँ मान लिया कि कोई और जेंडर हमारी आवाज बुलंद करे , माईक या ट्रांस जेंडर का सहारा भी तो ले सकते हैं बुलंद आवाज को । हमें कमजोर होने पर आपत्ती क्यों है ? अगर कोमलता स्त्री को कमजोर बनाता है तो ब्युटी पार्लर का बहिष्कार सबसे पहले हो ,वैक्स क्यों , नेल आर्ट से क्या फर्क पडेगा । अह्ह , अगर ये जरूरी है तो मतलब हमें कोमल होने , संवेदनशील और खुबसूरती का उत्सव मनाना चाहिए न कि दोगली सोच के साथ खुद से खुद को दूर करने करने का दंश । नारी होना दुर्घटना नहीं ,न ये कहने की आवश्यकता कि अगले जनम मोहे बिटीया न कजो ,, मैं तो हर जनम कहूँ , जो अब कियो हो दाता वैसा ही कीजो ,अगले जनम मोहे बिटीया ही किजो । मुद्दे की बात तो यही है कि न नारीवाद के लिए चैनलों या प्रेस क्लब पर बैठकें करने की जरूरत है न , नारी सर्वत्र पुजयन्ते की । तो आज विजयदशमी पर अपने अंदर की कुंठाओं का नाश और उत्सव के एहसास के साथ ध्यानआकर्षण का केन्द्र बनीए वजह शिफान साडी हो या स्याही की काली ताकत , जस्ट इनजाय ।