खबर , नई दिल्ली , शनिवार , 10-11-2018
सारिका पंकज
महापर्व के नाम से जाना जाने वाला ये चार दिनों का पर्व है जिसे प्रकृति का पर्व भी कहा जाता है | शुद्धता व नियमों की कठिन बंधन में रह कर इस पर्व को पूरा किया जाता है | इसकी शुरुयात होती है नहा खाए से इस दिन पर्व से जुड़े हर बर्तन और सामग्री को धो कर नियत स्थान पर रखा जाता है | जिसमे व्रती ये सारे कार्य अपने हाथों से करते हैं साथ में परिवार के सदस्य भी मदद करते है | इस दिन कद्दू और चावल के भोजन में किसी भी तरह के मसाले का इस्तेमाल नही किया जाता विशेषकर लहसुन प्याज़ का | इस पर्व की महानता और विशेषता यह है की इसमें समाज के हर वर्ग यहाँ तक की तथाकथित अस्पृश्य वर्ग को भी शामिल किया जाता है , इस पर्व की कई कहानिया प्रचलित हैं मगर अज के बदलते दौर में भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है क्युकी प्रकृति से जुड़े वस्तुयों का उल्लेख मिलता है और आज भी व्रती उन्ही नियमों का पालन करते है |
पर्व के दुसरे दिन से निर्जला व्रत आरंभ होता है जिसमे शाम के वक्त गेहूँ की रोटी और चावल का गुड और दूध के साथ खीर बना कर केले के पत्ते पर भोग लगाया जाता है ....और यह भोग किसी तस्वीर के सम्मुख नही होता बल्कि सूर्य देव को स्मरण कर अर्पित किया जाता है | इसमें भी किसी आडम्बर या कृत्रिम वास्तु की आवश्यकता नही परती | इसे खरना कहते हैं | इस भोग के बाद व्रती पुरे दिन के निर्जला उपवास को उसी प्रसाद ग्रहण कर के तोड़ती है |
उसके पश्चात् उसी वक्त से निर्जला व्रत आरम्भ होता है जो अनवरत 36 घंटों तक के लिए जारी रहता है |इसकी महत्ता इतनी आधिक है की कई असाध्य रोगों का निवारण होते हुए भी प्रत्यक्ष देखा गया है | इस पर्व का तीसरा दिन होता है जिसमे व्रती शाम के डूबता सूर्य को जल से अर्घ्य देती है उस अर्घ्य के लिए बांस के बने सूप में मौसमी फल , और गेहूँ के ठेकुआ के अतिरिक्त इस वक्त हुई फसल में तैयार मुली ,अदरक ,और हल्दी के प्रयोग को अनिवार्य रखा गया है |
व्रत के चौथे दिन इसकी पूर्णाहुति होती है ,जिसमे ब्रम्ह काल में पुरे परिवार के साथ व्रती नदी के किनारे बिना सिलाई किये हुए कपड़ों में आधे शारीर तक पानी में खड़े हो कर सूर्य देवता का इंतज़ार करतीं हैं ज्यू ही सूर्योदय होता है फल फुल से भरे सूप से अर्ध्य दिया जाता है मगर इस वक्त पानी से नही कच्चे दूध का प्रयोग होता है |
इस पर्व की परंपरा महाभारत काल से है ,मगर मान्यता ये है की इसकी जड़ें कही आधिक पुराणी हैं | इसे पहले बिहार से आरम्भ हुआ जानते है मगर अज ये देश के हर एक हिस्से में मनाया जाता है | उचित वक्ता की टीम की तरफ से शुभकामनाएं सभी व्रतियों को |